आकर्षण और प्रेम में क्या अंतर है?
दादाश्री : राग, वह पौद्गलिक वस्तु है और प्रेम, वह सच्ची वस्तु है। अब प्रेम कैसा होना चाहिए? कि बढ़े नहीं, घटे नहीं, उसका नाम प्रेम कहलाता है। और बढ़े-घटे वह राग कहलाता है। इसलिए राग में और प्रेम में फर्क ऐसा है कि वह एकदम बढ़ जाए तो उसे राग कहते हैं, इसलिए फँसा फिर। यदि प्रेम बढ़ जाए तो राग में परिणमित होता है। प्रेम उतर जाए तो द्वेष में परिणमित होता है। इसलिए उसका नाम प्रेम कहलाता ही नहीं न! वह तो आकर्षण और विकर्षण है। इसलिए अपने लोग जिसे प्रेम कहते हैं, उसे भगवान आकर्षण कहते हैं।
संबंधित विज्ञान :
1) जगत् के लोग प्रेम कहते हैं वह भ्रांति भाषा की बात है, छलने की बात है। अलौकिक प्रेम की हूंफ (संरक्षण, आश्रय) तो बहुत अलग ही होती है। प्रेम तो सबसे बड़ी वस्तु है।
2) राग, वह पौद्गलिक वस्तु है और प्रेम, वह सच्ची वस्तु है। अब प्रेम कैसा होना चाहिए? कि बढ़े नहीं, घटे नहीं, उसका नाम प्रेम कहलाता है। और बढ़े-घटे वह राग कहलाता है। इसलिए राग में और प्रेम में फर्क ऐसा है कि वह एकदम बढ़ जाए तो उसे राग कहते हैं, इसलिए फँसा फिर। यदि प्रेम बढ़ जाए तो राग में परिणमित होता है। प्रेम उतर जाए तो द्वेष में परिणमित होता है। इसलिए उसका नाम प्रेम कहलाता ही नहीं न! वह तो आकर्षण और विकर्षण है। इसलिए अपने लोग जिसे प्रेम कहते हैं, उसे भगवान आकर्षण कहते हैं।
3) मोह मतलब यूज़लेस जीवन। वह तो अंधे होने के बराबर है। अंधा व्यक्ति कीड़े की तरह घूमता है और मार खाता है, उसके जैसा। और प्रेम तो टिकाऊ होता है। उसमें तो सारी ज़िन्दगी का सुख चाहिए होता है। वह तात्कालिक सुख ढूंढे ऐसा नहीं न!
4) आसक्ति निकालने से जाती नहीं। क्योंकि इस लोहचुंबक और आलपिन दोनों को आसक्ति जो है, वह जाती नहीं। उसी प्रकार ये मनुष्यों की आसक्ति जाती नहीं। कम होती है, परिमाण कम होता है पर जाता नहीं।
5) सामनेवाला व्यक्ति किस प्रकार आत्यंतिक कल्याण को पाए, निरंतर उसी लक्ष्य के कारण यह प्रेम, यह करुणा फलित होती हुई दिखती है। जगत् ने देखा नहीं, सुना नहीं, श्रद्धा में नहीं आया, अनुभव नहीं किया, ऐसा परमात्म प्रेम प्रत्यक्ष में प्राप्त करना हो तो प्रेमस्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञानी की ही भजना करनी।
2) राग, वह पौद्गलिक वस्तु है और प्रेम, वह सच्ची वस्तु है। अब प्रेम कैसा होना चाहिए? कि बढ़े नहीं, घटे नहीं, उसका नाम प्रेम कहलाता है। और बढ़े-घटे वह राग कहलाता है। इसलिए राग में और प्रेम में फर्क ऐसा है कि वह एकदम बढ़ जाए तो उसे राग कहते हैं, इसलिए फँसा फिर। यदि प्रेम बढ़ जाए तो राग में परिणमित होता है। प्रेम उतर जाए तो द्वेष में परिणमित होता है। इसलिए उसका नाम प्रेम कहलाता ही नहीं न! वह तो आकर्षण और विकर्षण है। इसलिए अपने लोग जिसे प्रेम कहते हैं, उसे भगवान आकर्षण कहते हैं।
3) मोह मतलब यूज़लेस जीवन। वह तो अंधे होने के बराबर है। अंधा व्यक्ति कीड़े की तरह घूमता है और मार खाता है, उसके जैसा। और प्रेम तो टिकाऊ होता है। उसमें तो सारी ज़िन्दगी का सुख चाहिए होता है। वह तात्कालिक सुख ढूंढे ऐसा नहीं न!
4) आसक्ति निकालने से जाती नहीं। क्योंकि इस लोहचुंबक और आलपिन दोनों को आसक्ति जो है, वह जाती नहीं। उसी प्रकार ये मनुष्यों की आसक्ति जाती नहीं। कम होती है, परिमाण कम होता है पर जाता नहीं।
5) सामनेवाला व्यक्ति किस प्रकार आत्यंतिक कल्याण को पाए, निरंतर उसी लक्ष्य के कारण यह प्रेम, यह करुणा फलित होती हुई दिखती है। जगत् ने देखा नहीं, सुना नहीं, श्रद्धा में नहीं आया, अनुभव नहीं किया, ऐसा परमात्म प्रेम प्रत्यक्ष में प्राप्त करना हो तो प्रेमस्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञानी की ही भजना करनी।
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